प्राचार्य की लेखनी से

विद्या स्वर्ण है, परन्तु भूमि की मिटटी और मलिनता से लथपथ स्वर्ण को जब तक प्रयोग की भटठी में न तपाया जाये तब तक उस पर क्रान्ति और आभा नहीं चढती : कनकहिं बान चढै जिमी दाहे (रामचरित मानस, तुलसीदास) I

विद्यारूपी स्वर्ण को कान्तिमण्डल करने का प्रयास करने वाले संस्थापक जी के द्वरा इस महाविद्यालय की स्थापना की गयी I वास्तव में उनके विशाल ह्रदय में क्षेत्र के छात्र/छात्राओं को अध्ययन की सुविधा प्रदान करने की पवित्र इच्छा तरंगित थी I वे अपने गाँव और आस-पास के गाँव को शिक्षा- सुरुचि से आच्छादित करने के सदउददेश्य से प्रेरित थे I अस्तु प्रकृत संस्था की नींव राखी गयी I उनकी अटूट लगन, निष्ठा, त्याग व अतुलनीय परिश्रम इस महाविद्यालय की कल्पना में फलीभूत हुआ है I

मैं आदरणीय संस्थापक जी के सानिध्य एवं मार्गदर्शन तथा निदेशक जी के नेतृत्व व प्रबन्धन में महाविद्यालय के सहयोगी प्राध्यापकों एवं अन्य कर्मचारिओं के साथ इस संस्था को उसके अभीष्ट सोपान तक लेजाने का अथक परिश्रम कर रहा हूँ I


प्राचार्य